वी कृष्णास्वामी
वरिष्ठ खेल पत्रकार
अन्य क्षेत्रों की तरह ओलंपिक में भी बदलते भारत के दर्शन होते हैं. गए वो ज़माने जब भारतीय खिलाड़ी ओलंपिक में केवल संख्या बढ़ाते थे और विजिटिंग कार्डों पर 'ओलंपियन' बड़ा सा सजाकर लिखा जाता था.
अब भारतीय खिलाड़ियों की ज़हनियत बदल रही है.
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अब खिलाड़ी 'ओलंपियन' से 'मेडलिस्ट' या 'पदक विजेता' बनना चाहता है. ओलंपिक ग्राम में मौजूद 81 भारतीय खिलाड़ियों में से कुछ विश्व स्तर के हैं.
इनमें से कई ने भिन्न-भिन्न विश्व स्तर के आयोजनों जैसे ओलंपिक, एशियाड, कॉमनवेल्थ या फिर अपने-अपने खेलों की विश्व प्रतियोगिताओं में मेडल जीते हैं.
इन ओलंपिक आयोजनों में भारत के खिलाड़ियों के लिए तीरंदाजी, बॉक्सिंग, बैडमिन्टन, शूटिंग, टेनिस और कुश्ती जैसे छह खेलों में पदक की काफ़ी उम्मीदें दिख रही हैं.
इसके अलावा हॉकी भी है, जिससे लोगों को भावनात्मक कारण से उम्मीदें हैं.
स्थिति बदली 2008 में बीजिंग से
आज के हालात ओलंपिक में भारतीय खेलों के इतिहास से जुदा हैं. साल 1928 से 1980 के बीच के ओलंपिक खेलों में भारत को आठ स्वर्ण, एक रजत और एक कांस्य मिला.
साल 1952 में भारत को महज़ एक पदक हासिल हुआ - कुश्ती में कांस्य.
साल 1984 से लेकर 1992 भारत को एक भी पदक नहीं हासिल हुआ. साल 1996 से साल 2002 तक हर खेल में भारत को केवल एक पदक ही मिला.
"बीता समय बीत चुका है. मैंने चार साल पहले स्वर्ण पदक जीता था. वो बात ख़त्म हुई. इस क्षण तक मेरे पास लंदन में कुछ नहीं है"
अभिनव बिंद्रा, 2008 ओलंपिक में स्वर्ण पदक विजेता
साल 1996 में लिएंडर पेस, भारोत्तोलन में करनम मल्लेश्वरी को 2000 में कांस्य और 2004 में शूटिंग में राज्यवर्धन राठौर.
चीज़ें बदलना आरंभ हुईं साल 2008 में बीजिंग ओलंपिक से. बीजिंग में ना केवल भारत को तीन पदक मिले पर कई और भी पदक के एकदम नज़दीक जा खड़े हुए.
भारतीयों को मेडल जितनी ही ख़ुशी मिली अपने बॉक्सरों जितेन्दर कुमार और अखिल कुमार के प्रदर्शन से, जो क्वाटर फाईनल तक जा पहुंचे.
बैडमिन्टन में साइना नेहवाल और टेनिस में लिएंडर पेस और महेश भूपति की जोड़ी ने बहुत ही बढ़िया प्रदर्शन किया. इसी तरह से कुश्ती में योगेश्वर दत्त भी क्वाटर फाईनल में पहुँच कर हारे.
इनमे से हर कोई मेडल जीतने की कगार पर था.
यह हुआ कैसे?
पहला उत्तर है ज़हनियत में बदलाव. दूसरा - सरकार खिलाड़ियों को विदेश भेजने के मामले में ज़्यादा उदारता के साथ निर्णय ले रही है. इसके अलावा खेल पर होने वाला ख़र्च भी बढ़ा है.
यह बदली हुई ज़हनियत दिखती है 2008 के ओलंपिक में स्वर्ण पदक के विजेता अभिनव बिंद्रा की बातों में.
बिंद्रा कहते हैं " बीता समय बीत चुका है. मैंने चार साल पहले स्वर्ण पदक जीता था. वो बात ख़त्म हुई. इस क्षण तक मेरे पास लंदन में कुछ नहीं है." साफ़ दिखता है कि वो लंदन से कुछ लेकर जाना चाहते हैं.
मुक्केबाज़ विजेंदर, जो शायद भारत के सबसे चर्चित गैर क्रिकेट खिलाड़ी हैं, वो कहते हैं "जब मुक्केबाज़ या अन्य पदक की बात करते हैं तो वो शेखी नहीं मार रहे, यह उनके विश्वास का प्रतीक है."
खेलों में निजी कंपनियां
"जब मुक्केबाज़ या अन्य पदक की बात करते हैं तो वो शेखी नहीं मार रहे, यह उनके विश्वास का प्रतीक है"
विजेंदर, मुक्केबाज़
इसके अलावा एक बहुत ही महवपूर्ण बदलाव है खेलों में निजी कंपनियों और संगठनों के पैसे का आना. जैसे एक संगठन है 'ओलंपिक गोल्ड क्वेस्ट' जिसके निदेशकों में प्रकाश पादुकोण, बिलियर्ड्स के सितारे गीत सेठी और शतरंज के विश्व चैम्पियन विश्वनाथन आनंद शामिल हैं.
इसके अलावा स्टील किंग लक्ष्मी नारायण मित्तल के द्वारा शुरू किया 'मित्तल स्पोर्ट्स फांउडेशन' जो भारतीय तीरंदाजों, मुक्केबाजों शूटरों के अलावा भी कई खिलाड़ियों की मदद कर रहा है. साथ ही 'लक्ष्य' और 'गो स्पोर्ट्स' जैसे संगठन भी हैं.
इसके अलावा पैसे वाले प्रायोजक हैं जैसे मोनेट, टाटा, सहारा और सैमसंग जिन्होंने क्रिकेट के अलावा भी खेलों में पैसा लगाने की हिम्मत दिखाई.
यह सब मिल कर ओलंपिक में भारतीय खिलाड़ियों को बदल रहा है.
हाँ यह सच है कि इस सबकी वजह से पदकों की कोई बाढ़ नहीं आ जाएगी लेकिन यह तय है कि ओलंपिक 2012 में भारतीय खिलाड़ियों प्रदर्शन का 2008 से बेहतर रहेगा.
आख़िर में जो पदक जीतते हैं और उनके बाद के दो तीन खिलाड़ियों में कोई खास अंतर नहीं रहता. यह तय है कि इस बार कई भारतीय खिलाड़ी पहले पांच या छह में रहने वाले हैं.
ओलंपिक की भावना खिलाड़ियों में पहले भी थी अभी भी है लकिन इस बार पदकों के लिए भारतीय खिलाड़ियों में भूख ज़्यादा है.
:D~~
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